‘घर में चूहामार दवा थी. वही निकालकर सामने रख ली कि दंगाई गली में घुस आए तो खा लूंगी. वैसे तो रसोई में चाकू भी हैं, लेकिन धार उतनी ही, जितने में लौकी कट जाए. मरने के लिए बिल्कुल तैयार थी. तभी इनकी मौत की खबर आई. तब से से रोज मर रही हूं.’
भरे-पूरे परिवार में रहती मीता थम-थमकर बोलती हैं. आवाज में गहरी थकान और ऊब. नींबू की फांक-सी आंखों में बेपरवाह उदासी, मानो कहती हों- ‘पूछकर भी क्या कर लोगी तुम! और बताकर भी क्या लौट सकेगा मेरा!’
ये ब्रह्मपुरी है! उत्तरी दिल्ली की ‘गलीदार’ बस्ती, जहां गली के ही किसी मुहाने पर दंगों के दौरान मीता के पति को गोली मार दी गई. संकरी गली से पैदल निकलते हुए कई घर दिखते हैं, जिनके सामने धार्मिक प्रतीक बने-लिखे हैं.
‘नंगे पांव भागे थे,
दो मिनट बाद गोली लग गई’
तिमंजिला घर! अंदर घुसते ही पहली बात दिमाग में आई- ‘इन्हें भला क्या कमी हो सकती है’. सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते दिल अपनी ही सोच पर चाबुक सड़पाने लगा. शायद मेरे लोकल मददगार ने पहले ही मुझे समझ लिया होगा. तभी तो मीता से मुलाकात के लिए ले जाते हुए चेताया- उतना ही कुरेदिएगा, जितने में दर्द सह जाए! गाड़ी में बैठे हुए वो सीधा मेरी आंखों में देख रहा था. शायद उसे अंदाजा था कि हम जैसों के सवाल कितने खाए-अघाए हो सकते हैं. सिर डुलाते हुए मैं हां-भर कह सकी.
गर्म वेलवेटी दुपट्टा ओढ़े हुए मीता ने शुरुआत में कोई बातचीत नहीं की. बैठने का इशारा किया और बाहर चली गईं. किचन से करछुल चलने की आवाज आ रही थी. लौटी तो चेहरे पर माफी का हल्का-सा भाव. ‘बच्चों के स्कूल से आने का टाइम हो रहा है!’
मैंने जाकर दरवाजा हल्का-सा भिड़ा दिया. हाथ में पड़ी अकेली चूड़ी को गोल-गोल घुमाती मीता अब बोल रही हैं, मानो सालों बाद खुद से ही बात कर रही हों. सुबह के साढ़े 4 बजे होंगे, जब हल्ला सुनकर ये भागे. पांव में चप्पल तक नहीं पड़ी थी. मैं पीछे दौड़ी. 2 मिनट बाद ही इन्हें गोली लगने की खबर आई. भाईसाहब और बाकी लोग शरीर को खींचकर घर ले आए वरना शायद मिट्टी भी नहीं दे पाते.
हर चेहरे में कभी
कातिल दिखता है, कभी खरीदा
सवाल शायद मेरे चेहरे पर तैर रहा हो, मीता तुरंत कहती हैं- सारे आदमी गए थे. वो लोग (दंगाई) कॉलोनी तक आ चुके थे. घर में घुसकर बहू-बेटियों की इज्जत न लें, इसके लिए सब पहरेदारी कर रहे थे. मेरे पति भी पूरा दिन गली किनारे ड्यूटी पर रहे. देर रात लौटकर झपकी ही ले रहे थे कि शोर होने पर दोबारा लौट गए. जाते हुए उनकी पीठ दिखी. और बिना चप्पल घिसटता हुआ पैर. वही आखिरी बार था.
‘आखिरी बार’ ये शब्द दिल्ली की उन गलियों में बार-बार सुनाई पड़ा. शौहर खो चुकी औरतों की चुप में. औलाद गंवा चुकी मांओं की आंखों में. तस्वीरों से ही पिता को जानते बच्चों के बचपन में.
10वीं पास मीता ‘आखिरी बार’ कहते हुए भरभराकर रो नहीं देतीं. थमी रहती हैं. जैसे रोज ही उस मंजर को बार-बार जीती रही हों.
गली का पहरा देते हुए ही ये चले गए. अब दंगाइयों के बीच बैठकर मैं सब्जी की दुकान लगाती हूं. दिल-दिल में अंदाजा लगाते हुए कि इनमें से किस आदमी ने गोली चलाई होगी. हर चेहरे में कभी कातिल दिखता है, कभी खरीददार.
लोग आते हैं. सब्जियां लेते हुए भाव-ताव करते हैं. मुझसे दोगुनी उम्र के लोग आंटी या अम्मा कह जाते हैं. जानबूझकर.
मैं गौर से मीता को देख रही हूं. मुझसे करीब 10 बरस छोटी. सादा-सा पहनावा. चेहरे पर कोई मेकअप नहीं. छोटी तीखी नाक सोने की बारीक लौंग के साथ ठंड की फुनगी जमी हुई. बेहद-बेहद सुंदर इस युवती के दुखों के ढेर में तिनकाभर बोझ ये भी कि कमउम्र में ही उसे बड़ी-बूढ़ियों का तौर सीखना पड़ा.
तैयार होती होगी, तो कैसी गजब दिखती होगी. जानने की इच्छा को भरसक दबाकर पूछती हूं- किस तरह के कपड़े पहनना पसंद है?
पसंद तो सब था. अब यही (धूसर-खाकी रंग) पहनती हूं. बाकी वहां (अलमारी की तरफ इशारा करते हुए) धरे हैं. बेटी बड़ी हो तो शायद उसके काम आ जाएं. या क्या पता… ! अधूरा वाक्य हवा में टंका रहता है. क्या पता के तमाम मतलब हो सकते हैं. शायद मीता उन कपड़ों को कहीं फेंक दे. जरूरतमंद को दे दे. या फिर इतवार के इतवार धूप दिखाकर सहेजती रहे, जैसे पति की बाकी यादों को.
मैं देखती हूं. बैठक में वो सारी बातें हैं, जो किसी कमरे में मर्दाना मौजूदगी को दिखाती हैं. खूंटी पर लटक रही चौड़ी बेल्ट. और पसरा हुआ सोफासेट, जिसके सामने सेंटर टेबल पर शायद मीता के पति सुबह की चाय पीते हों. मीता हल्के-हल्के सुबक रही हैं. फिर धीरे से कहती हैं- वैसे तो घर पर सब बहुत अच्छे हैं, लेकिन पति का जाना सब चला जाना ही है.
समझ सकती हूं- कहते हुए मैं धीरे से मीता के हाथ से अपनी अंगुलियां छुआ देती हूं. जैसे कुछ याद आ गया हो, वे तमककर बोलती हैं- ठेले पर आते कई लोग सब्जियां कम, मुझे ज्यादा देखते हैं. पैसे देते-लेते जानबूझकर अंगुलियां छुआ देते हैं. जताऊं, या न जताऊं, समझती सब हूं. तब भी चुप रहती हूं. बच्चे पालने हैं किसी तरह.
‘परिवार में सबका सपोर्ट तो होगा!’ जानबूझकर कुरेदे जाने पर भी मीता आपा नहीं खोतीं. धीरे-धीरे ही कहती हैं- हां, सब बहुत ध्यान रखते हैं, लेकिन घरवाले के जाने से मौसम तो बदलता है.
अब तक बच्चे प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में थे. कुछ दिन पहले फीस लेट हुई तो स्कूलवालों ने नाम काटने की धमकी दे दी. अभी तो चल रहा है, लेकिन ज्यादा नहीं खींच पाऊंगी. वो होते तो इसकी नौबत नहीं आती.
राजस्थान की एक औरत का चेहरा मेरे आगे तिर जाता है. मीता की ही उम्र की उस औरत का पति कमाने-खाने गया तो सालों नहीं लौटा. तीन बच्चों की उस मां ने कहा था- वैसे तो सब ठीक है. बच्चे स्कूल जाते हैं. पहनने को साबुत कपड़े और खाने को सब्जी-दाल भी है. लेकिन तभी तक, जब तक दूसरे चाहें. अपनी मर्जी से मैं पांच रुपए का बिस्किट भी नहीं खरीद पाती. राजस्थान के किसी कोने में बैठी उस औरत और दिल्ली में रहती मीता इस मामले में बिल्कुल एक-से हैं.
मीता का चेहरा घुमड़ रहा है. शायद वो सारे वक्त याद आ रहे हों जब बिस्किट-चिप्स के लिए भी उनके बच्चे दूसरों का मुंह ताकते हों. वे चाहकर भी मुझसे कुछ नहीं कह पातीं.
आखिरी याद?
घिसा हुआ सवाल न चाहकर भी मुंह से निकल चुका था. मीता टक लगाकर देखती रहती हैं, फिर कहती हैं- यादें तो भतेरी (बहुत) हैं. आपसे क्या बताऊं. कभी कमी न रहने दी. ये रूम भी खूब चाव से सजवाया था.
कमरा वाकई सुंदर है. नए चलन का. एक दीवार पर गहरे कत्थई रंग पर सुनहरी परियां बनी हुई. दूसरी तरफ फालसई रंग की सादी दीवार. टीवी पर शोख रंग का कवर डला हुआ. सबकुछ चाव से सजाया. मैं देख ही रही थी कि तभी किवाड़ खड़का. सामने परिवार की एक महिला सदस्य हमारी विदा के इंतजार में थी.
ब्रह्मपुरी के उस घर से निकलते हुए मैं भरपूर नजर मीता पर डालती हूं. पतझड़ जाते-जाते जैसे जाना भूल जाए, ऐसे उदासी रुकी हुई है. चेहरे की हर हल्की-गहरी लकीर में जिद. मानो कहती हो- जिंदा सारे बेकार हैं. जो चला गया, मुझे तो बस वही चाहिए.
मेरे लोकल मददगार हाथ जोड़ते हुए कहते हैं- जख्मों को छेड़ने के लिए माफी! वे आगे भी कुछ कह रहे हैं. मैं न माफी मांगती हूं, न हाथ ही जोड़ सकी. सांय से घर से निकल गई.
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